कभी-कभी एक किताब शब्दों से कहीं अधिक कर जाती है। वह चेतना को हिला देती है सोचने के ढंग को बदल देती है और पूरे समाज को अपनी धुरी पर घुमा देती है। ऐसा ही कुछ हुआ जब एक साधारण उपन्यास ने भाषा को एक पहचान दे दी। यह कोई सरकारी योजना नहीं थी न ही कोई शिक्षाविदों की संगोष्ठी थी। यह तो एक लेखनी थी जो जनमानस के दिलों में उतर गई।

जब एक कहानी ने लहजे को बदल दिया
उस समय तक उस क्षेत्र की भाषा केवल घरेलू संवाद तक सीमित थी। बड़े कामों के लिए बाहरी भाषाओं का सहारा लिया जाता था। लेकिन जब “गोदान” या “चित्रलेखा” जैसे उपन्यास सामने आए तो लोग चौंक गए।
यह उनकी अपनी बोली में थी उनके अपने दुःख-सुख और विरोधाभासों की आवाज़ थी। इसने बताया कि आम आदमी की ज़बान भी साहित्य की ज़बान बन सकती है।
प्रकाशन से पहले की चुप्पी और फिर तूफान
इस उपन्यास की पांडुलिपि जब पहली बार एक छोटे प्रकाशक के पास पहुँची तो किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि यह इतिहास रच देगी। मुद्रण मशीन की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि पुस्तक चर्चा का विषय बन गई।
इसकी भाषा न तो खालिस शुद्ध थी और न ही पूरी तरह बोलचाल की लेकिन उसमें एक ऐसी सादगी थी जो लोगों को छू गई।
साहित्यिक मंडलियों में पहले हल्का उपहास हुआ। पर पाठकों की भीड़ ने उस उपहास को चुप करा दिया। कॉलेजों की दीवारों पर उस किताब के अंश लिखे जाने लगे। रेडियो पर अंश पढ़े गए।
और सबसे बड़ी बात लोग अब उस भाषा में कविताएं कहानियां और आत्मकथाएं लिखने लगे जो पहले सिर्फ रसोई और चौपाल तक सीमित थी।
अब जब भाषा धीरे-धीरे मंच पर आ रही थी कुछ बदलाव खुदबखुद उभरने लगे:
1. स्कूलों के पाठ्यक्रम में बदलाव
पुस्तक की लोकप्रियता ने अकादमिक संस्थाओं को भी मजबूर किया कि वे इस भाषा को पढ़ाने की प्रक्रिया में शामिल करें। पुराने पाठ्यक्रमों को बदला गया और नए लेखकों की रचनाओं को शामिल किया गया जो उसी शैली में लिखते थे।
इससे छात्रों में अपनी भाषा को लेकर आत्मविश्वास बढ़ा और अभिव्यक्ति के नए रास्ते खुले।
2. रंगमंच और फिल्म की भाषा में बदलाव
सिनेमा और थिएटर ने उस लहजे को अपनाया जिससे किरदार और ज्यादा असली लगने लगे। संवाद अब नाटकीय नहीं बल्कि परिचित लगते थे। दर्शकों को लगता जैसे वे खुद मंच पर बोल रहे हों और यही जुड़ाव उस भाषा की ताकत बन गया।
3. नए लेखकों की पीढ़ी का उभार
इस उपन्यास ने नए लेखकों को प्रेरणा दी कि वे डरें नहीं और अपनी मातृभाषा में लिखें। एक ऐसा साहित्यिक आंदोलन शुरू हुआ जो अब भी जारी है। कई युवा लेखकों ने इसे अपना मिशन बना लिया कि वे इस शैली को और आगे ले जाएं।
यह सब इतना सहज हुआ जैसे किसी ने मिट्टी में बीज बो दिया हो और बारिश का इंतजार भी न करना पड़ा हो।
जब भाषा को पहचान मिली
उपन्यास ने भाषा को सिर उठाकर चलना सिखाया। यह सिर्फ एक पुस्तक नहीं थी यह एक बयान था कि आम जन की आवाज़ को भी मंच मिल सकता है।
एक दिलचस्प बात यह भी रही कि जिन क्षेत्रों में यह भाषा बोली जाती थी वहां पुस्तकालयों में मांग अचानक बढ़ गई। प्रकाशकों को कई बार पुनर्मुद्रण करना पड़ा।
लोगों ने उस भाषा में पुराने लोकगीतों की किताबें भी मांगनी शुरू कर दीं और इस तरह परंपरा भी दोबारा सांस लेने लगी।
पढ़ने की दुनिया में समानांतर प्रयास
भाषा आंदोलन सिर्फ किताबों की दुकानों तक सीमित नहीं रहा। डिजिटल लाइब्रेरी और मुक्त स्रोत मंचों ने भी इसे बढ़ावा दिया। आज जब किसी पुस्तक की बात होती है तो पाठक केवल एक मंच तक सीमित नहीं रहते।
कई पाठक व्यापक चयन के लिए Zlib को Anna’s Archive और Library Genesis के साथ मिलाकर देखते हैं। यह तीनों मिलकर एक ऐसी श्रृंखला बनाते हैं जहां हर प्रकार के पाठक को कुछ न कुछ मिल ही जाता है।
एक उपन्यास एक लहर
कहानियों का असर सिर्फ कथानक से नहीं होता। असली असर तब होता है जब वह दिल में घर कर जाती है जब वह अपनी भाषा में बात करती है।
यही वह क्षण होता है जब एक कहानी आंदोलन बन जाती है और एक उपन्यास इतिहास रच देता है।
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